भोपाल । पूर्व की शिवराज सरकार में कार्यकर्ताओं की नाराजगी से सबक लेते हुए डा. मोहन सरकार लोकसभा चुनाव के बाद उन सभी संस्थाओं में चुनाव कराने की तैयारी कर रही है, जिनमें किसी न किसी रूप में पार्टी कार्यकर्ताओं को सत्ता में भागीदारी दी जा सकती है, इसी के तहत सबसे पहले सहकारी संस्थाओं में चुनाव कराने का फैसला किया गया है। इन संस्थाओं में बीते एक दशक से चुनाव नहीं कराए गए हैं। इसकी वजह से आमजन की जगह अफसरों ने बतौर प्रशासक रहते हुए जमकर मौज काटी है। संगठन भी सहकारी संस्थाओं में चुनाव कराने का पक्षधर है। संगठन के इशारे पर सरकार ने जल्द ही सहकारी साख समितियों के चुनाव कराने की तैयारी शुरु कर दी है। प्रदेश में इस समय करीब साढ़े चार हजार प्राथमिक किसान साख सहकारी समितियां हैं। इनमें 2012- 2013 के बाद से चुनाव नहीं हुए हैं। 2013 के बाद चुनाव 2018 में होने थे पर उसके बाद भी इनमें चुनाव नहीं कराया गया है। इन संस्थाओं को लेकर पूर्व की भाजपा सरकार का रुख इससे ही समझा जा सकता है कि हाईकोर्ट भी बीते साल इन संस्थाओं में चुनाव कराने के निर्देश दे चुका है, लेकिन इसके बाद भी चुनाव नहीं कराए गए। दरअसल, शिव सरकार में अफसरशाही हावी रहने की वजह से सत्ता में कार्यकर्ताओं को भागीदारी देने वाली संस्थाओं में चुनाव कराने से बचती रही है।
इस तरह से होंगे चुनाव: सहकारी क्षेत्र में सबसे प्रमुख कड़ी सरकारी साख समितियां होती हैं। इसकी वजह से इन्ही समितियों के सबसे पहले चुनाव होंगे। इसमें किसान सदस्य होते हैं। समिति के सदस्य एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, एक बैंक प्रतिनिधि समेत 11 से 15 संचालकों को चुनाव करते हैं। जिसमें से एक  प्रतिनिधि मार्केटिंग सोसायटी, एक इफ्को के लिए चुना जाएगा। इसके बाद जिला बैंक के लिए निर्वाचित हुए प्रतिनिधियों में से सहकारी बैंक के संचालकों का चुनाव किया जाएगा। इसमें बैंक प्रतिनिधि को वोट डालने के साथ ही चुनाव लडऩे का भी अधिकार होता है।  जिला बैंकों में एक अध्यक्ष, दो उपाध्यक्ष, एक अपेक्स बैंक प्रतिनिधि समेत कृभको, एपको समेत अन्य सहकारी संस्थाओं के लिए प्रतिनिधि चुने जाते हैं। यही प्रतिनिधि अपेक्स बैंक के अध्यक्ष को चुनते हैं।  हर बैंक में सदस्यों की संख्या के मान से 11 से 15 संचालक निर्वाचित होते हैं।

संशोधन के बाद भी नहीं की नियुक्ति


सहकारी बैंकों समेत अन्य शीर्ष सहकारी संस्थाओं में चुनाव न हो पाने की वजह से तत्कालीन शिव सरकार ने राजनेताओं को उपकृत करने के लिए नियमों में संशोधन भी किया था। इस संबंध में एक प्रस्ताव कैबिनेट में लाया गया था। इस प्रस्ताव में यह प्रावधान किया गया था कि सहकारी संस्थाओं के प्रशासक का प्रभार अशासकीय व्यक्ति को भी दिया जा सकता है। इस संशोधन के बाद राज्य सरकार ने भाजपा नेता रमाकांत भार्गव को अपेक्स बैंक का प्रशासक नियुक्त किया था पर उसके बाद किसी संस्था या सहकारी बैंक में प्रशासक की नियुक्ति नहीं की गई।

राजनेताओं को मिलता है मौका
भले ही सरकारिता चुनाव पूरी तरह लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करते हुए कराने का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से पूरा खेल राजनैतिक रूप से खेला जाता है। सहकारी बैंकों के अध्यक्ष वही बन पाते है जो सत्ताधारी दल के होते हैं। कांग्रेस के जमाने से इन बैंकों में राजनेताओं की नियुक्ति की परम्परा अब भी जारी है। सत्ताधारी दल का संगठन जिला बैंक के अध्यक्षों के नाम तय करता है। सहकारी बैंकों समेत अन्य संस्थाओं में पार्टी के उन नेताओं को मौका दिया जाता है जो ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं और कई बार विधानसभा किसी न किसी कारण से उन्हें टिकट नहीं मिल पता है। इसके अलावा राज्य की संस्थाओं में भी नियुक्ति पार्टी कार्यकर्ता के काम के हिसाब से की जाती है।

साख समितियों के भी हाल बुरे


प्रदेश में 38 जिला सरकारी बैंक है। इनमे से मालवा अंचल के दो से तीन बैंकों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश की हालत खस्ता है और वे सालों से घाटे के दलदल में फंसे हैं। इनमें ग्वालियर-चंबल और बुंदेलखंड के बैंकों की हालत तो बेहद खराब हैं। इनमें रीवा,सतना,दतिया और ग्वालियर के जिला सहकारी बैंक भी शामिल हैं। इसकी मुख्य वजह है समय पर वसूली न करना। अधिकांश बैंकों का किसानों पर बड़ा बकाया बना हुआ है। यही हाल प्रदेश की अधिकांश प्राथमिक साख समितियों का है। अधिकांश समितियां घाटे में है। चुनाव न होने से समिति सहायक से लेकर निरीक्षक तक पर इनका जिम्मा है।