प्रेम और समर्पण
प्रेम जीवन की परम समाधि है. प्रेम ही शिखर है जीवन ऊर्जा का. वही गौरीशंकर है जिसने प्रेम को जाना, उसने सब जान लिया. जो प्रेम से वंचित रह गया, वह सभी कुछ से वंचित रह गया। प्रेम की भाषा को ठीक से समझ लेना जरूरी है। प्रेम के शास्त्र को ठीक से समझ लेना जरूरी है। क्योंकि प्रेम ही तीर्थयात्रा है। उससे ही पहुंचने वाले पहुंचे हैं और जो नहीं पहुंचे, वे इसलिए नहीं पहुंचे कि उन्होंने जीवन को कोई और रंग दे दिया, जो प्रेम का नहीं था। प्रेम का अर्थ है, समर्पण की दशा, जहां दो मिटते हैं, एक बचता है। जहां प्रेमी और प्रेम पात्र अपनी सीमाएं खो देते हैं, जहां उनकी दूरी समग्र रूपेण शून्य हो जाती है। यह उचित नहीं कि प्रेमी और प्रेम-पात्र करीब आ जाते है; क्योंकि करीब होना भी दूरी है।
पास नहीं आते खो जाते हैं। निकटता में भी तो फासला है। प्रेम उतना फासला भी बर्दाश्त नहीं करता। प्रेम दो को एक बना देता है। प्रेम अद्वैत है। इस प्रेम को हम थोड़ा समझें। ऐसा तो व्यक्ति ही खोजना कठिन है, जिसने प्रेम न किया हो। गलत ढंग से किया हो, गलत प्रेम पात्र से किया हो, लेकिन प्रेम किये बिना तो कोई बच नहीं सकता क्योंकि वह तो जीवन की सहज अभिव्यक्ति है। तो तीन तरह के प्रेम हैं। समझ लें। पहला जिसमें सौ में से निन्यानबे लोग उलझ जाते हैं। वह वस्तुओ का प्रेम है- धन का, संपदा का, मकान का, तिजोरियों का। वस्तुओ का प्रेम- प्रेम के लिए सबसे बड़ा धोखा है लेकिन उसमें कुछ खूबी है; इसलिए सौ में से निन्यानबे लोग उसमें पड़ जाते हैं और वह खूबी यह है कि वस्तुओं के प्रति तुम्हें समर्पण नहीं करना पड़ता। वस्तुओं को तुम अपनी तरफ आकषिर्त कर लेते हो। तुम्हारी कार, तुम्हारी कार है। तुम्हारा मकान, तुम्हारा मकान है। तुम समर्पित होने से बच जाते हो। और तुम्हें यह अहसास होता है, कि वस्तुएं तुम्हारे प्रति समर्पित हैं। एक तरह का अद्वैत सध जाता है।
तुम हाथ में रुपया रखे हो। रुपये की सीमा और तुम्हारी सीमा मिट गई। रुपया बाधा नहीं डालता सीमा के मिटने में और तुम्हें समर्पण करने के लिए मजबूर नहीं करता। रुपया समर्पित है। तुम जो चाहो करो, रुपया ना-नुकुर नहीं करेगा। तुम चाहे नदी में फेंक दो, तुम चाहे भिखारी को दे दो, तुम चाहे कुछ सामान खरीद लो, तुम चाहे तिजोरी में संभाल कर रखो। रुपयें की कोई अपनी मनोदश नहीं है। रुपया पूरा समर्पित है।