जब क्रियता का संवेदन होता है तो अक्रियता का संवेदन भी होगा। हमारे सारे तनाव इस परिघि में हो रहे हैं। क्रियता का संवेदन हो, क्रिय मिले, क्रिय को वियोग न हो और अप्रियता का योग न हो। बस, सारी तनाव की यह सीमा है। इसी सीमा में सारे तनाव प्रकट हो रहे हैं। पर मूल में जो छिपा हुआ कारण कार्य कर रहा है, वह मात्र एक ही है- प्रियता का संवेदन, अप्रियता का संवेदन। अब यह संवेदन है तो भय भी पैदा होगा।  
एक छोटी सी कहनी है। एक आदमी बहुत डरता था। वह समझदार आदमी के पास गया जो मंत्र को जानता था। उसके पास जाकर बोला, मुझे डर बहुत लगता है। उसने ताबीज बना दिया और कहा, इसको बांध लो। तुम्हारा डर समाप्त हो जाएगा। ताबीज बांध लिया। डर लगना कम हो गया। पर मंत्र जानने वाला व्यक्ति कुछ दिन बाद ही आया और पूछा- भाई! अब डर तो नहीं लगता? उसने कहा, जो काल्पनिक था, वह तो नहीं लगता किन्तु एक डर और पैदा हो गया। निरन्तर मन में भय बना रहता है कि कहीं ताबीज गुम न हो जाए। एक भय तो समाप्त हुआ, दूसरा भय और आ गया।  
जब यह दृष्टि मूल में बनी रहती है कि प्रिय का वियोग न हो जाए, अप्रिय का योग न हो जाए, तब भय अनिवार्य है। उस मूल कारण से तनाव पैदा होता है। जब प्रिय संवेदन की भावना है, उसका तनाव भी पैदा होता है। हमारे जीवन के संचालन के केन्द्र में जो तत्व है, वह है लोभ। मनोविज्ञान के अनुसार हर व्यक्ति में कुछ मौलिक मनोवृत्तियां होती हैं। जीने की इच्छा भी इसी में एक है।