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एक तरफ तो पूरे देश में दिवाली की धूम है तो दूसरी ओर भोपाल की पॉलिटेक्निक इलाके की तंग गलियों में इस बार सन्नाटा पसरा हुआ है। मानस भवन के पीछे बसी 70 साल पुरानी आदिवासी बस्ती है। यहां 27 परिवारों के 200 से ज्यादा लोग रहते हैं। इनमें मजदूर, बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं सभी शामिल हैं।

हर साल यह इलाका दीपों की रोशनी और बच्चों की हंसी से जगमगाता था, लेकिन इस बार घरों की दीवारों पर दीये नहीं, “हमारी दिवाली में अंधेरा क्यों?”, “हम घर नहीं इंसाफ मांग रहे हैं” जैसे पोस्टर चिपके हैं।

दरअसल, जिला प्रशासन ने इन घरों में रहने वालों को बेदखली का नोटिस दे दिया है। 25 अगस्त को जारी इस नोटिस में कहा गया है कि यह भूमि सरकारी/वन क्षेत्र में आती है और सात दिन में खाली की जाए। लोगों का कहना है कि उन्हें जुर्माने के साथ नोटिस थमाए गए और चेतावनी दी गई कि जल्द ही बुलडोजर चलेगा।

स्थानीय वकीलों के मुताबिक यह कार्रवाई नियमों के खिलाफ है क्योंकि यहां के कई परिवार तीन पीढ़ियों से रह रहे हैं और ‘वन अधिकार अधिनियम’ के तहत उन्हें हटाया नहीं जा सकता।

दीवारों पर लगाए पोस्टर्स इलाके में हर घर की दीवार पर अब रंग-बिरंगी झालरों की जगह काले-सफेद पोस्टर लगे हैं। किसी पर लिखा है “हमारी दिवाली में अंधेरा क्यों”, किसी पर “हम घर नहीं इंसाफ मांग रहे हैं”, तो कहीं छोटे-छोटे बच्चे पोस्टर उठाए खड़े हैं जिन पर लिखा है “हमारा घर तोड़ा, सपने भी कुचले।”

हमारी दिवाली काली है, अब क्या मनाएं?” आयशा नाम की महिला घर के बाहर खड़ी थीं। आंखों में गुस्सा और बेबसी दोनों थे। बोलीं “अब क्या मनाएं दीवाली, साहब? घर तोड़ने का नोटिस दे दिया है। बुलडोजर का इंतजार करें या अपने घरों को खुद गिरा दें? मेहनत से ईंट-ईंट जोड़कर बनाया घर अब किसी की पार्किंग के नीचे दब जाएगा। पास ही राजकुमारी खड़ी थीं, जिनके सास-ससुर यहां 60-70 साल से रहते हैं।

वे कहती हैं कि हमारे बच्चे यहीं पैदा हुए, यहीं स्कूल जाते हैं। अब कहां जाएंगे? एक तरफ सरकार लाड़ली बहना बना रही है, दूसरी तरफ हमें बेघर कर रही है।

तीन पीढ़ियां बीत गईं, अब कहां जाएं 80 साल की रैला अपने छोटे से घर के बाहर बैठी हैं। लकड़ी का दरवाजा, दीवार पर पुरानी रंगाई। कहती हैं – “हमारे मां-बाप, भाई-बहन सब यहीं रहे, यहीं मरे। अब कहते हैं निकलो यहां से। हमें एक कमरे की मल्टी दिखा दी है। वहां जाएंगे तो बच्चों को कहां रखेंगे?”उनकी बात सुनते हुए आसपास की औरतें सिर हिलाती हैं। सबकी आंखों में एक ही सवाल “क्या गरीब का घर होना अब गुनाह है?

हमें बेघर न करें, रहने की जगह दे दो जुलैखा बी, जो पिछले दस साल से यहां रह रही हैं, कहती हैं कि हम लोग मजदूर हैं। सुबह सात से शाम छह तक बंगलों में काम करते हैं, तब जाकर ये घर बने हैं। अगर सरकार को हमारी झुग्गी अच्छी नहीं लगती तो पक्के घर दे दो, पर हमें बेघर मत करो।

इस बार बस्ती में नहीं हुआ रंग-रोगन 70 साल पुरानी इस बस्ती में ऐसा पहली बार हुआ है कि दिवाली नहीं मनाई जा रही। हर साल लोग अपने घरों को रंगते थे, बच्चों के लिए कपड़े और मिठाई लाते थे, दीए जलाते थे। मगर इस बार किसी ने न दीया खरीदा, न रंग-रोगन करवाया। लोगों का कहना है “जब घर पर बुलडोजर चलने का डर हो, तो रोशनी कैसी और त्योहार कैसा?”एक गृहिणी ने कहा कि इस बार दिवाली नहीं, गम की रात होगी। बच्चे पूछते हैं, मां दीये क्यों नहीं लाए? क्या जवाब दें?”