नेचुरल लाइट यानी सूर्य और चांद की रोशनी के नीचे अब लोगों का समय कम बीत रहा है। ऐसे में उन्हें दूर की वस्तुएं धुंधली दिखाई देने लगी हैं। इस रोग को मायोपिया कहा जाता है। यह समस्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि इस साल मायोपिया अवेयरनेस वीक (19 से 25 मई) के लिए थीम ‘स्क्रीन डाउन, आइज अप’ रखी गई है।
इसका मतलब है कि व्यक्ति मोबाइल, लैपटॉप और टीवी को छोड़कर घर से बाहर खुले आसमान के नीचे समय बिताए।
मायोपिया से सबसे ज्यादा बच्चे प्रभावित
इससे सबसे अधिक प्रभावित बच्चे हो रहे हैं। एम्स भोपाल के नेत्र रोग विभाग द्वारा हाल ही में पांच साल तक की गई एक केस स्टडी सामने आई है। इसमें पता चला कि जिन 6,000 बच्चों को आंखों से जुड़ी समस्या थी, उनमें से 47% बच्चों को मायोपिया था। यही नहीं, अब इस रोग को ‘मायोपिया एपिडेमिक’ यानी महामारी का नाम भी दिया गया है।
विशेषज्ञों ने चिंता जाहिर की है कि यदि जल्द सख्त कदम नहीं उठाए गए, तो साल 2050 तक हर दूसरा बच्चा इससे ग्रसित होगा।
रुक रहा बच्चों की आंखों का विकास
एम्स के नेत्र रोग विभाग की प्रमुख डॉ. भावना शर्मा ने बताया कि आज हर घर में बच्चे मोबाइल, लैपटॉप और टीवी के सामने अधिक समय बिता रहे हैं। इसके कारण उनकी आंखों का वह विकास रुक रहा है, जो सामान्य रूप से 18 साल तक होता है।
आंखों की मांसपेशियां दूर और पास देखने के लिए अपनी स्थिति बदलती हैं। जब आंखों में तेज रोशनी पड़ती है तो पुतली सिकुड़ती है। लेकिन अब लंबे समय तक पास की चीजों को देखने और कृत्रिम रोशनी में रहने के कारण आंखों की मांसपेशियां एक ही स्थिति में फिक्स हो रही हैं, जिससे मायोपिया की समस्या बढ़ रही है।
जब हम सुबह या शाम की रोशनी में बाहर खेलते हैं, तो यह आंखों के लिए सबसे अनुकूल समय होता है। इसमें न रोशनी बहुत तेज होती है और न ही बहुत कम, जिससे आंखों की मांसपेशियों पर कम दबाव पड़ता है।
3 तरह का होता है मायोपिया
- डॉ. शर्मा के अनुसार मायोपिया मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है – माइल्ड, मॉडरेट और सीवियर।
- माइल्ड और मॉडरेट मायोपिया को चश्मे और कुछ उपचारों द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है।
- वहीं, सीवियर मायोपिया में रेटिना पर असर पड़ता है, जिससे रेटिना में छेद हो सकता है या वह अपनी जगह से खिसक सकता है। ऐसी स्थिति में सर्जरी ही एकमात्र उपाय बचता है।
मायोपिया को नजरअंदाज न करें
ऑल इंडिया ऑप्थैल्मोलॉजिकल सोसाइटी (AIOS) के महासचिव डॉ. संतोष होनावर के अनुसार मायोपिया चुपचाप एक गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती बनती जा रही है। यह केवल चश्मे तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे रेटिनल डिजनरेशन, ग्लूकोमा, मायोपिक डिजनरेशन और अंधेपन जैसी जटिलताएं हो सकती हैं।
2050 तक दुनिया की आधी आबादी हो सकती है शिकार
2019 में मायोपिया के बढ़ते मामलों को देखते हुए अमेरिकन एकेडमी ऑफ ऑप्थैल्मोलॉजी ने ‘मायोपिया टास्क फोर्स’ का गठन किया। इसके प्रमुख डॉ. रिचर्ड एल. एबॉट और डॉ. डोनाल्ड टैन थे। टीम में दुनियाभर के नेत्र विशेषज्ञ, बाल रोग विशेषज्ञ और अन्य संस्थाएं शामिल थीं। उनका मानना है कि मायोपिया को अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
2010 में दुनिया की 28% आबादी मायोपिया से ग्रसित थी। अनुमान है कि 2050 तक यह आंकड़ा 50% तक पहुंच सकता है। पूर्वी एशिया में यह दर 90% तक जा सकती है।