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काठमांडू: पिछले दिनों की बात है। राजधानी दिल्ली में काफी तेज बारिश हो रही थी। इस दौरान यमुना पार लक्ष्मी नगर में दिल्ली पुलिस की टीम लगातार एक शख्स की तलाश के लिए हाथ पैर मार रही थी। काफी मशक्कत के बाद पिछले हफ्ते लक्ष्मी नगर से एक नेपाली नागरिक, जिसका नाम प्रभात चौरसिया था, उसे आखिरकार गिरफ्तार कर लिया गया। प्रभात चौरसिया ने अपने आधार कार्ड का इस्तेमाल करते हुए अलग अलग कंपनियों से 16 सिम कार्ड खरीदे थे। पहले इन सिम कार्ड को नेपाल भेजा गया था और बाद में पाकिस्तान के बहावलपुर भेज दिया गया।

भारत में पाकिस्तान के लिए जासूसी करते हुए किसी नेपाली नागरिक का पकड़ा जाना कोई नई बात नहीं है। भारत की खुफिया एजेंसियों रॉ और आईबी ने पहले भी कई जासूसों को ऑपरेशन चलाकर गिरफ्तार किया है। कश्मीर टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक फिलहाल जांच चल रही है कि प्रभात चौरसिया किसके लिए काम कर रहा था और उसने क्या जासूसी की है। लेकिन उसका सुराग पाकिस्तान तक पहुंचता है, ये पानी की तरह साफ हो चुका है।

नेपाल कैसे बना जासूसों के लिए जंग का मैदान?
रॉ के पूर्व स्पेशल सचिव डी.पी. सिन्हा ने अपनी किताब "ट्रोजन हॉर्स" में इसी तरह के ऑपरेशनों के बारे में लिखा है। उन्होंने लिखा है कि कैसे लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों पर नजर रखने के लिए सिम कार्ड का इस्तेमाल किया जाता था और खुफिया एजेंट मुजाहिदीन बनकर अक्सर नेपाल के रास्ते ऑपरेट करते रहे हैं। जैसे 29 जून 1998 को काठमांडू के बागमती क्षेत्र के सिफल में पशुपतिनाथ मंदिर के पास रात 9:30 बजे मिर्जा दिलशाद बेग अपनी कार से बाहर निकला ही था, कि दो हमलावरों ने उन पर अंधाधुंध गोलियां चला दीं। ड्राइवर के साथ उसकी मौके पर ही मौत हो गई। मिर्जा दिलशाद बेग नेपाल का सांसद था और उनकी हत्या उस वक्त की गई, जब वो अपनी दूसरी पत्नी से मिलने जा रहा था। इसके अलावा 2018 में सुनसरी जिले में प्रिंसिपल खुर्शीद आलम अंसारी की हत्या कर दी गई। नेपाल ने दोनों मामलों में विदेशी एजेंसियों पर आरोप लगाए थे।
नेपाल जासूसों के लिए मैदान ऐसे ही नहीं बना। बल्कि इस टकराव की जड़ 1990 के दशक की घटनाओं में छिपी है। जब भारत में पाकिस्तान ने आतंकी हमले करवाने शुरू किए। 1993 मुंबई ब्लास्ट्स में 257 लोगों की मौत और भारी तबाही हुई। इसके बाद दाऊद ने नेपाल को सुरक्षित ठिकाने के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। मिर्जा दिलशाद बेग, जो भारत में पैदा हुआ था और बाद में नेपाल का सांसद बना, वो ISI के लिए काम कर रहा था। उसने नकली भारतीय करेंसी, हथियार, ड्रग्स और पासपोर्ट रैकेट के जरिए नेपाल में समानांतर साम्राज्य खड़ा कर लिया। उसकी पहुंच नेपाल के मंत्रियों और यहां तक कि शाही परिवार तक थी। यहीं से अबु सलेम जैसे अपराधी और कश्मीर के आतंकी प्रशिक्षण के लिए अफगानिस्तान भेजे जाते थे। इस नेटवर्क ने न सिर्फ भारत की सुरक्षा एजेंसियों को चिंता में डाल दिया था, बल्कि नेपाल की राजनीति को भी गहराई से प्रभावित किया था।
नेपाल के रास्ते भारत में आतंकियों की घुसपैठ
इसके अलावा नेपाल के रास्ते पाकिस्तानी आतंकी खुलेआम भारत आने लगे। भारत और नेपाल के बीच का 1664 किलोमीटर की खुली सीमा आतंकियों, अपराधियों और जासूसों के लिए आसान रास्ता बन गया। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार से लगे जिलों में मुस्लिम बहुल गांवों का इस्तेमाल सीमा पार गतिविधियों को अंजाम देने के लिए किया जाने लगा। सीमावर्ती इलाकों में कई ऐसे मुस्लिम गांव बन गये, जिन्हें ‘छोटा पाकिस्तान’ तह कहा जाने लगा। इस बात का जिक्र पूर्व राजनयिक एम.के. रसगोतरा ने अपनी किताब में किया है। 1980 के बाद सऊदी अरब ने काफी तेजी फंडिंग की, जिससे भारी संख्या में नेपाल में मदरसों और मस्जिदों का निर्माण हुआ। IB की रिपोर्ट्स के मुताबिक, इनमें से कई ठिकानों का इस्तेमाल लश्कर-ए-तैयबा, हिजबुल और जैश जैसे संगठनों ने सुरक्षित रूट के तौर पर करते रहे हैं। नेपाल का तराई इलाका आज भी भारत की सुरक्षा एजेंसियों के लिए चुनौती बना हुआ है।

1999 में जब काठमांडू से IC-814 फ्लाइट को हाईजैक किया गया, जिससे भारत को मसूद अजहर जैसे खतरनाक आतंकियों को रिहा करने पर मजबूर होना पड़ा, उसने भी नेपाल और सीमावर्ती क्षेत्र में ISI की मदद से नेटवर्क बना लिया था। 2013 में बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद यासीन भटकल को नेपाल बॉर्डर से पकड़ा गया। लश्कर का बम एक्सपर्ट अब्दुल करीम टुंडा भी नेपाल में एक्टिन था और स्पेशल ऑपरेशन चलाकर उसे नेपाल से भारत लाया गया था। पाकिस्तान का रिटायर्ड कर्नल हबीब जाहिर नेपाल से गायब हुआ, जिसे भारतीय एजेंसियों की कार्रवाई माना जाता है। यतीश यादव की किताब "RAW: A History of India’s Covert Operations" में जिक्र किया गया है कि कैसे R&AW ने नेपाली माओवादी आंदोलन को सपोर्ट किया, जबकि IB कभी-कभी उसी के खिलाफ काम करता रहा। यह खींचतान बताती है कि नेपाल सिर्फ भारत और पाकिस्तान ही नहीं, बल्कि भारत की आंतरिक एजेंसियों के लिए भी ‘जंग का मैदान’ रहा है।